सपनों की चादर
ओढ़ के,
लोरी की झांझर
पहन,
मन उड़ चला…
मन उड़ चला…
क्यों उड़ चला
ओ बाँवरे…
सुन रुक ज़रा
साँसे थाम ले…
उस ओर काफ़ी
शोर है,
ना जा उधर
ना पंख यूं
पसार ले…
ना हो ये
दर्पण…
कहीं टूटे ना
थोड़ा तू यहीं
संभल जा…
तू रुक ज़रा
ओ बाँवरे…
सुन तो ज़रा…
ना तेज़ चल
राहें अजब ही
हो रहीं…
कुछ उलझा है
पंखों में
तेरे
आज खुद को
थाम ले…
ना तेज चल
रुक तो
सही
मन मेरे ओ
बाँवरे…
ख्वावोन के पंख
ले उड़
चला
तू किधर मन
बाँवरे....
समीक्षा रघुवंशी
8 मार्च 2013
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